Wednesday, August 21, 2013

मौसम-ए-साज़ पे थिरकता मन-मयूर

मौसम ने छेड़ा कुछ ऐसा साज़,
कि बादलों का टूटा ठहराव,

झूम के बरसी फिर ये घटा काली,
आसमानी जलतरंग ने फैलाई फिर धरती पर  हरियाली,

मिटटी का हर कण उछल-उछल कर भीगा,
इसकी सोंधी खुशबू ने फिर किया आलम को मदमस्त और रंगीला,

देख भूधरा का भीगा आँचल
ठंडी हवा भी संग लहराई,

हर चित्त जो था गर्मी से व्याकुल,
इस बहार--बरखा ने ठंडक पहुचाई,

पंछियों ने भी खूब उठाया आनंद इस घड़ी का,
गाये गान प्यार के, फड़-फड़ाए पंख इकरार के,
भूल के हर बात, अगली-पिछली,
प्यास बुझाई चित्त और आत्मा की, 

देखो इस झड़ी ने क्या है रंग लगाये,
मन्न जो हो उठे चंचल, तो फिर कहीं लग ना पाए,

हर दम अब नया कोई नगमा ये दिल गुन-गुनाता है,
अल्फाजों के पर लगा, दूर तक घूम के आता है,

गुज़रते हुए यादों के बगीचों से,
ये कभी सूखी पढ़ी, खुशियों की डालों पर आँख का पानी छलकाता है,
तो कभी गीलें ग़मों के पत्तों को, मुस्कान की धुप से सुखाता है,

इस मौसम--साज़ की तरन्नुम को सुन
देखो कैसे जिया भावुक हो जाता है,
इन बादलों के संग बरसने से,
कई बार ये मन भी हल्का हो जाता है,

समेट फिर ज़िन्दगी का सार,
संग हो हर रंग फिर एक बार,
आसमान फिर सुकून का ध्वज लहराता है,
देख उस इन्द्रधनुष को, मन-मयूर फिर आशावादी हो थिरकने लग जाता है

3 comments:

  1. Superb! How beautiful... as if it's you, not the 'mayur' whose dancing to the pitter-patter of the rains...( I still remember you showing those classical dance steps at PWW. I was at awe.) Himani, I know this is what delights you. Honest words that strew themselves so beautifully. This is what satisfies a writer.. something that is written for self.
    Keep writing. Such pieces make even a yard long comment spontaneous.

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